राजपूत समाज में शादी में सात फेरों की जगह चार फेरे ही लेने की परम्परा क्यूँ है? राजपूताना समाज मे शादी में सात की जगह चार फेरों की परम्परा (Why-take-Four-rounds-at-the-wedding in Rajput community)
राजपूत समाज में शादी में सात फेरों की जगह चार फेरे ही लेने की परम्परा क्यूँ है?
राजपूताना समाज मे शादी में सात की जगह चार फेरों की परम्परा
(Why-take-Four-rounds-at-the-wedding in Rajput community)
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वैदिक संस्कृति के अनुसार सोलह संस्कारों को जीवन के सबसे महत्त्वपूर्ण संस्कार माने जाते हैं। विवाह संस्कार उन्हीं में से एक है जिसके बिना मानव जीवन पूर्ण नहीं हो सकता। हिंदू धर्म में विवाह संस्कार को सोलह संस्कारों में से एक संस्कार माना गया है।
विवाह = वि + वाह, अत: इसका शाब्दिक अर्थ है - विशेष रूप से (उत्तरदायित्व का) वहन करना। पाणिग्रहण संस्कार को सामान्य रूप से हिंदू विवाह के नाम से जाना जाता है। अन्य धर्मों में विवाह पति और पत्नी के बीच एक प्रकार का करार होता है जिसे कि विशेष परिस्थितियों में तोड़ा भी जा सकता है, परंतु हिंदू विवाह पति और पत्नी के बीच जन्म-जन्मांतरों का सम्बंध होता है जिसे किसी भी परिस्थिति में नहीं तोड़ा जा सकता। अग्नि के सात फेरे लेकर और ध्रुव तारा को साक्षी मान कर दो तन, मन तथा आत्मा एक पवित्र बंधन में बंध जाते हैं। हिंदू विवाह में पति और पत्नी के बीच शारीरिक संम्बंध से अधिक आत्मिक संम्बंध होता है और इस संम्बंध को अत्यंत पवित्र माना गया है।
भारतीय विवाह में विवाह की परंपराओं में सात फेरों का भी एक चलन है। जो सबसे मुख्य रस्म होती है। हिन्दू धर्म के अनुसार सात फेरों के बाद ही शादी की रस्म पूर्ण होती है। सात फेरों में दूल्हा व दुल्हन दोनों से सात वचन लिए जाते हैं। यह सात फेरे ही पति-पत्नी के रिश्ते को सात जन्मों तक बांधते हैं। हिंदू विवाह संस्कार के अंतर्गत वर-वधू अग्नि को साक्षी मानकर इसके चारों ओर घूमकर पति-पत्नी के रूप में एक साथ सुख से जीवन बिताने के लिए प्रण करते हैं और इसी प्रक्रिया में दोनों सात फेरे लेते हैं, जिसे सप्तपदी भी कहा जाता है। और यह सातों फेरे या पद सात वचन के साथ लिए जाते हैं। हर फेरे का एक वचन होता है, जिसे पति-पत्नी जीवन भर साथ निभाने का वादा करते हैं। यह सात फेरे ही हिन्दू विवाह की स्थिरता का मुख्य स्तंभ होते हैं।
विवाह के बाद कन्या वर के वाम अंग में बैठने से पूर्व उससे सात वचन लेती है। कन्या द्वारा वर से लिए जाने वाले सात वचन इस प्रकार है -
प्रथम वचन
तीर्थव्रतोद्यापन यज्ञकर्म मया सहैव प्रियवयं कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति वाक्यं प्रथमं कुमारी!!
(यहाँ कन्या वर से कहती है कि यदि आप कभी तीर्थ यात्रा को जाओ तो मुझे भी अपने संग लेकर जाना। कोई व्रत-उपवास अथवा अन्य धर्म कार्य आप करें तो आज की भांति ही मुझे अपने वाम भाग में अवश्य स्थान दें। यदि आप इसे स्वीकार करते हैं तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)
किसी भी प्रकार के धार्मिक कृ्त्यों की पूर्णता हेतु पति के साथ पत्नि का होना अनिवार्य माना गया है। जिस धर्मानुष्ठान को पति-पत्नि मिल कर करते हैं, वही सुखद फलदायक होता है। पत्नि द्वारा इस वचन के माध्यम से धार्मिक कार्यों में पत्नि की सहभागिता, उसके महत्व को स्पष्ट किया गया है।
द्वितीय वचन
पुज्यौ यथा स्वौ पितरौ ममापि तथेशभक्तो निजकर्म कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं द्वितीयम!!
(कन्या वर से दूसरा वचन मांगती है कि जिस प्रकार आप अपने माता-पिता का सम्मान करते हैं, उसी प्रकार मेरे माता-पिता का भी सम्मान करें तथा कुटुम्ब की मर्यादा के अनुसार धर्मानुष्ठान करते हुए ईश्वर भक्त बने रहें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)
यहाँ इस वचन के द्वारा कन्या की दूरदृष्टि का आभास होता है। आज समय और लोगों की सोच कुछ इस प्रकार की हो चुकी है कि अमूमन देखने को मिलता है--गृहस्थ में किसी भी प्रकार के आपसी वाद-विवाद की स्थिति उत्पन होने पर पति अपनी पत्नि के परिवार से या तो सम्बंध कम कर देता है अथवा समाप्त कर देता है। उपरोक्त वचन को ध्यान में रखते हुए वर को अपने ससुराल पक्ष के साथ सदव्यवहार के लिए अवश्य विचार करना चाहिए।
तृतीय वचन
जीवनम अवस्थात्रये मम पालनां कुर्यात,
वामांगंयामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं तृतीय!!
(तीसरे वचन में कन्या कहती है कि आप मुझे ये वचन दें कि आप जीवन की तीनों अवस्थाओं (युवावस्था, प्रौढावस्था, वृद्धावस्था) में मेरा पालन करते रहेंगे, तो ही मैं आपके वामांग में आने को तैयार हूँ।)
चतुर्थ वचन
कुटुम्बसंपालनसर्वकार्य कर्तु प्रतिज्ञां यदि कातं कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं चतुर्थ!!
(कन्या चौथा वचन ये माँगती है कि अब तक आप घर-परिवार की चिन्ता से पूर्णत: मुक्त थे। अब जबकि आप विवाह बंधन में बँधने जा रहे हैं तो भविष्य में परिवार की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति का दायित्व आपके कंधों पर है। यदि आप इस भार को वहन करने की प्रतीज्ञा करें तो ही मैं आपके वामांग में आ सकती हूँ।)
इस वचन में कन्या वर को भविष्य में उसके उतरदायित्वों के प्रति ध्यान आकृ्ष्ट करती है। विवाह पश्चात कुटुम्ब पौषण हेतु पर्याप्त धन की आवश्यकता होती है। अब यदि पति पूरी तरह से धन के विषय में पिता पर ही आश्रित रहे तो ऐसी स्थिति में गृहस्थी भला कैसे चल पाएगी। इसलिए कन्या चाहती है कि पति पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर होकर आर्थिक रूप से परिवारिक आवश्यकताओं की पूर्ति में सक्षम हो सके। इस वचन द्वारा यह भी स्पष्ट किया गया है कि पुत्र का विवाह तभी करना चाहिए जब वो अपने पैरों पर खडा हो, पर्याप्त मात्रा में धनार्जन करने लगे।
पंचम वचन
स्वसद्यकार्ये व्यवहारकर्मण्ये व्यये मामापि मन्त्रयेथा,
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: पंचमत्र कन्या!!
(इस वचन में कन्या जो कहती है वो आज के परिपेक्ष में अत्यंत महत्व रखता है। वो कहती है कि अपने घर के कार्यों में, विवाहदि, लेन-देन अथवा अन्य किसी हेतु खर्च करते समय यदि आप मेरी भी मन्त्रणा लिया करें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)
यह वचन पूरी तरह से पत्नि के अधिकारों को रेखांकित करता है। बहुत से व्यक्ति किसी भी प्रकार के कार्य में पत्नी से सलाह करना आवश्यक नहीं समझते। अब यदि किसी भी कार्य को करने से पूर्व पत्नी से मंत्रणा कर ली जाए तो इससे पत्नी का सम्मान तो बढता ही है, साथ- साथ अपने अधिकारों के प्रति संतुष्टि का भी आभास होता है।
यह वचन पूरी तरह से पत्नि के अधिकारों को रेखांकित करता है। बहुत से व्यक्ति किसी भी प्रकार के कार्य में पत्नी से सलाह करना आवश्यक नहीं समझते। अब यदि किसी भी कार्य को करने से पूर्व पत्नी से मंत्रणा कर ली जाए तो इससे पत्नी का सम्मान तो बढता ही है, साथ-साथ अपने अधिकारों के प्रति संतुष्टि का भी आभास होता है।
षष्ठम वचनः
न मेपमानमं सविधे सखीनां द्यूतं न वा दुर्व्यसनं भंजश्चेत,
वामाम्गमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं च षष्ठम!!
(कन्या कहती है कि यदि मैं अपनी सखियों अथवा अन्य स्त्रियों के बीच बैठी हूँ तब आप वहाँ सबके सम्मुख किसी भी कारण से मेरा अपमान नहीं करेंगे। यदि आप जुआ अथवा अन्य किसी भी प्रकार के दुर्व्यसन से अपने आप को दूर रखें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)
वर्तमान परिपेक्ष्य में इस वचन में गम्भीर अर्थ समाहित हैं। विवाह पश्चात कुछ पुरुषों का व्यवहार बदलने लगता है। वे जरा- जरा सी बात पर सबके सामने पत्नी को डाँट-डपट देते हैं। ऐसे व्यवहार से पत्नी का मन कितना आहत होता होगा। यहाँ पत्नी चाहती है कि बेशक एकांत में पति उसे जैसा चाहे डांटे किन्तु सबके सामने उसके सम्मान की रक्षा की जाए, साथ ही वो किन्हीं दुर्व्यसनों में फँसकर अपने गृ्हस्थ जीवन को नष्ट न कर ले।
सप्तम वचनः
परस्त्रियं मातृसमां समीक्ष्य स्नेहं सदा चेन्मयि कान्त कुर्या,
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: सप्तममत्र कन्या!!
(अन्तिम वचन के रूप में कन्या ये वर मांगती है कि आप पराई स्त्रियों को माता के समान समझेंगें और पति-पत्नि के आपसी प्रेम के मध्य अन्य किसी को भागीदार न बनाएंगें। यदि आप यह वचन मुझे दें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)
विवाह पश्चात यदि व्यक्ति किसी बाह्य स्त्री के आकर्षण में बँध पगभ्रष्ट हो जाए तो उसकी परिणिति क्या होती है। इसलिए इस वचन के माध्यम से कन्या अपने भविष्य को सुरक्षित रखने का प्रयास करती है।
मेरी जिज्ञासा भी यह जानने की रही, कि आखिर ऐसा क्यों? सात फेरों की जगह सिर्फ चार फेरे ही क्यों? हमारे राजपूताना समाज मे चार ही फेरे होते हैं मेरे भी चार ही फेरे हुये थे। यूँ तो बचपन से बहुत सी शादियाँ देखी पर कभी ध्यान ही नहीं दिया कि हमारे यहाँ सात नहीं सिर्फ चार फेरे ही होते है । विवाह एक ऐसी परंपरा है जहाँ केवल स्त्री-पुरुष का मिलन ही नहीं बल्कि दो परिवारों का मिलन भी होता है । हिन्दू धर्म में अलग-अलग क्षेत्रों में विवाह संस्कारों की अलग-अलग विधि पाई जाती है, पर अक्सर सुनने को मिलता है कि "सात फेरे" एक ऐसी रस्म है जिसके बिना किसी भी क्षेत्र में विवाह पूर्ण नहीं माना जाता।
वर्ष 1985 में 'घर-द्वार' फिल्म में एक गीत फिल्माया गया था "सात फेरों के सातों वचन...",अगर इसी गीत को कुछ इस प्रकार गाया जाए "चार फेरों के सातों वचन..." तो थोड़ा अजीब नहीं लगेगा?
कुछ लोगों से पूछा कि उनकी शादी में कितने "फेरे" हुए? तो किसी ने कहा -चार, तो किसी ने कहा - 'फेरे तो सात ही होते है, सात फेरों के बिना विवाह अधुरा होता है । गांव व घर के बुजुर्गों से पूछा तो उन्होंने बताया कि-“हमारे राजपूत समाज में शादी में चार ही फेरे होते है इन चार फेरों में से तीन में दुल्हन आगे तथा एक में दूल्हा आगे रहता है । ये चार फेरे चार पुरुषार्थो-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के प्रतीक हैं । यही बात शास्त्रों में भी लिखी है ।”
साथ ही बुजुर्गों से ही राजपूत समाज में चार ही फेरे क्यों होते है के सम्बन्ध में एक मान्यता के बारे में भी सुनने को मिला ।
मान्यतानुसार राजस्थान के प्रसिद्ध लोक देवता पाबू जी राठौड़ का जब विवाह हो रहा था और फेरों की रस्म चल ही रही थी उन्होंने तीन ही फेरे ही लिए थे जिसमें वधु आगे थी कि उसी समय उन्हें एक सूचना मिली कि एक वृद्ध महिला की गायें लुटेरे लुट कर ले जा रहे है । उस वृद्धा ने अपनी बहुत ही अच्छी नस्ल की एक घोड़ी पाबूजी राठौड़ को इस शर्त पर दी थी कि जब उसके पशुधन की सुरक्षा के लिए कभी जरुरत पड़े तो वे तुरंत हाजिर होंगे । अत: पाबू जी राठौड़ ने अपना वो वचन निभाने के लिए बीच फेरों में ही पशुधन की रक्षा के लिए जाने का निर्णय लिया और चौथे फेरे में आगे होकर फेरों की रस्म को चार फेरों में पूर्ण कर दिया और उसी वक्त पाबू जी गठजोड़े को छोड़कर युद्ध के लिए निकल पड़े । और उस वृद्धा के पशुधन की रक्षार्थ लुटेरों से लड़ते हुए शहीद हो गए थे।
पाबू जी द्वारा अपने विवाह में फेरों के उपरांत बिना सात फेरे पूरे किये ही बीच में उठकर गोरक्षा के लिए जाने व अपना बलिदान देने के बाद राजस्थान में राजपूत समुदाय में अब भी विवाह के दौरान चार फेरों और सात वचनों कि परंपरा है । ऐसी मान्यता कुछ बुजुर्ग लोग बताते है । अब सात की जगह चार फेरों का वास्तविक कारण तो बहुत सारे है पर हाँ आज भी राजस्थान में राजपूत समाज में सात की जगह चार फेरों व सात वचनों के साथ ही विवाह की रस्म पूरी की जाती है । जानकारी लेने पर पता चला कि देश के और भी राज्यों में सात की जगह चार, फेरों की रस्में निभाई जाती है । साथ ही वैदिक काल में भी चार फेरों से विवाह पूर्ण कराने का वर्णन मिलता है ।
राजपूत महिलाएं भी फेरों की रस्म के समय जो गीत गाती है उनमें सिर्फ चार फेरों का ही जिक्र होता है-
"पैलै तो फेरै लाडली दादोसा री पोती
दुजै तो फेरै लाडली बाबोसा री बेटी
अगणे तो फेरै काकां री भतीजी
चौथै तो फेरै लाडली होई रे पराई ।"
एक और मान्यता है की जब तक तीन फेरे होते है तब तक न तो वधु वर की पत्नी हो सकती है, और न ही वर वधु का पति। यानि की तीन फेरों तक तो दोनों के अलग -अलग तीन-तीन फेरे माने जाते है यानि की 3+3 =6 और जब चोथा फेरा होता है तो दोनों एक दुसरे के हो जाते है जो की 1 फेरा माना जाता है इस तरह से 7 फेरो का महत्त्व भी माना जाता है ।
यदि आपके पास भी इस संबंध में ज्यादा जानकारी हों तो कृपा टिप्पणी के माध्यम से इस फेरों की इन परम्पराओं पर प्रकाश डालने का कष्ट करें ।
सन्दर्भ कथा - पाबू जी राठौड़
राजस्थान की संस्कृति में पाबू जी राठौड़ को विशेष स्थान प्राप्त है।पाबूजी को लक्ष्मणजी का अवतार माना जाता है। कल्याण के लिए अपना सारा जीवन दाँव पर लगा दिया और देवता के रूप में हमेशा के लिए अमर हो गए।
पाबूजी राजस्थान के लोक देवताओं में से एक माने जाते हैं।राजस्थान में इनके यशगान स्वरूप 'पावड़े' (गीत) गाये जाते हैं व मनौती पूर्ण होने पर फड़ भी बाँची जाती है। 'पाबूजी की फड़' पूरे राजस्थान में विख्यात है। प्रतिवर्ष चैत्र अमावस्या को पाबूजी के मुख्य 'थान' (मंदिर गाँव कोलूमण्ड) में विशाल मेला लगता है, जहाँ भक्तगण हज़ारों की संख्या में आकर उन्हें श्रृद्धांजलि अर्पित करते हैं। राजस्थान के लोक जीवन में कई महान व्यक्तित्व देवता के रूप में सदा के लिए अमर हो गए। इन लोक देवताओं में कुछ को 'पीर' की संज्ञा दी गई है। एक जनश्रुति के अनुसार राजस्थान में पाँच पीर हुए हैं। इन्हें 'पंच पीर' भी कहा जाता है, जिनके नाम इस प्रकार हैं- उपरोक्त जनश्रुति का दोहा इस प्रकार है-
पाबू, हड़बू, रामदे, मांगलिया, मेहा। पांचो पीर पधारज्यों, गोगाजीजेहा॥
पाबूजी राठौड़ का जन्म वि.संवत 1313 में जोधपुर ज़िले में फलोदी के पास कोलू नामक गाँव में हुआ था। पाबूजी के पिताजी का नाम धाँधल जी राठौड़ था। पाबूजी का विवाह अमरकोट (अमरकोट एक नगर है जो सिंध, अमरकोट ज़िला, पाकिस्तान में स्थित है) के सोढ़ा राणा सूरजमल की पुत्री सुप्यारदे के साथ तय हुआ था।
फेरां सुणी पुकार जद, धाडी धन ले जाय |
आधा फेरा इण धरा, आधा सुरगां खाय ||
पाबूजी राठौड़ चारण जाति की एक वृद्ध औरत “देवल चारणी” से'केसर कालवी' नामक घोड़ी इस शर्त पर ले आये थे कि जब भीउस वृद्धा पर संकट आएगा वे सब कुछ छोड़कर उसकी रक्षा करनेके लिए आयेंगे । चारणी ने पाबूजी को बताया कि जब भी मुझपर पर व मेरे पशुधन पर संकट आएगा तभी यह घोड़ी हिन् हिनाएगी ।इसके हिन् हिनाते ही आप मेरे ऊपर संकट समझकर मेरी रक्षा केलिए आ जाना ।
“देवल चारणी” को उसकी रक्षा का वचन देने के बाद एक दिनपाबूजी राठौड़ अमरकोट के सोढा राणा सूरजमल के यहाँ ठहरेहुए थे । सोढ़ी राजकुमारी ने जब उस बांके वीर पाबूजी राठौड़ कोदेखा तो उसके मन में उनसे शादी करने की इच्छा उत्पन्न हुई तथाअपनी सहेलियों के माध्यम से उसने यह प्रस्ताव अपनी माँ केसमक्ष रखा । पाबूजी राठौड़ के समक्ष जब यह प्रस्ताव रखा गयातो उन्होंने राजकुमारी को जबाब भेजा कि 'मेरा सिर तो बिका हुआहै, विधवा बनना है तो विवाह करना ।
लेकिन उस वीर ललना सोढ़ी राजकुमारी का प्रत्युतर था 'जिसकेशरीर पर रहने वाला सिर उसका खुद का नहीं, वह अमर है ।उसकी पत्नी को विधवा नहीं बनना पड़ता । विधवा तो उसकोबनना पड़ता है जो पति का साथ छोड़ देती है । और शादी तय होगई ।
फेरां सुणी पुकार जद, धाडी धन ले जाय |
आधा फेरा इण धरा, आधा सुरगां खाय ||
किन्तु जिस समय पाबूजी ने तीसरा फेरा लिया, ठीक उसी समयकेसर कालवी घोड़ी हिन् हिना उठी । “देवल चारणी” पर संकट आगया था । चारणी ने जींदराव खिंची को केसर कालवी घोड़ी देने सेमना कर दिया था, इसी नाराजगी के कारण आज मौका देखकरउसने चारणी की गायों को घेर लिया था।
संकट के संकेत (घोड़ी की हिन्-हिनाहट)को सुनते ही वीर पाबूजीविवाह के फेरों को बीच में ही छोड़कर गठजोड़े को काट कर“देवल चारणी” को दिए वचन की रक्षा के लिए, “देवल चारणी” केसंकट को दूर-दूर करने चल पड़े । ब्राह्मण कहता ही रह गया किअभी तीन ही फेरे हुए चौथा बाकी है ,पर कर्तव्य मार्ग के उसबटोही को तो केवल कर्तव्य की पुकार सुनाई दे रही थी। जिसेसुनकर वह चल दिया; सुहागरात की इंद्र धनुषीय शय्या के लोभ कोठोकर मार कर, रंगारंग के मादक अवसर पर निमंत्रण भरे इशारोंकी उपेक्षा कर, कंकंण डोरों को बिना खोले ही।
और वह चला गया -क्रोधित नारद की वीणा के तार की तरहझनझनाता हुआ, भागीरथ के हठ की तरह बल खाता हुआ,उत्तेजित भीष्म की प्रतिज्ञा के समान कठोर होकर केसर कालवीघोड़ी पर सवार होकर वह जिंदराव खिंची से जा भिड़ा, गायेंछुडवाकर अपने वचन का पालन किया किन्तु वीर-गति को प्राप्तहुआ।
इधर सोढ़ी राजकुमारी भी हाथ में नारियल लेकर अपने स्वर्गस्थपति के साथ शेष फेरे पूरे करने के लिए अग्नि स्नान करके स्वर्गपलायन कर गई।
इण ओसर परणी नहीं, अजको जुंझ्यो आय ।
सखी सजावो साज सह, सुरगां परणू जाय।।
शत्रु जूझने के लिए चढ़ आया। अत: इस अवसर तो विवाह सम्पूर्णनहीं हो सका। हे सखी! तुम सती होने का सब साज सजाओ ताकिमैं स्वर्ग में जाकर अपने पति का वरण कर लूँ । यों उस वीर ने आधे फेरे यहाँ व शेष स्वर्ग में पूरे किये।
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